आर.के. सिन्हा
अभी तक भारत का पाकिस्तान के मैत्री और बातचीत के प्रस्तावों पर ठंडा रुख अपनाना सिद्ध कर रहा है कि इस बार भारत अपने धूर्त पड़ोसी से संबंधों को सामान्य बनाने की बाबत कोई अनावश्यक उत्साहपूर्ण प्रयास करने वाला नहीं है। भारत ने पूर्व में जब भी पाकिस्तान के साथ मेल-मिलाप की ईमानदार कोशिशें कीं, उसे तो बदले में मिला करगिल या मुंबई का हमला।
पाकिस्तान के आर्मी चीफ जनरल कमर जावेद बावजा को अचानक से नया ज्ञान प्राप्त हो गया लगता है I वे कह रहे हैं कि भारत-पाकिस्तान को अपने आपसी विवादों को हल कर लेना चाहिए, इससे दक्षिण एशिया में एक बेहतर वातावरण बनेगा। यह ज्ञान पहले कहाँ छिपा हुआ था ?
कारगिल मिला दोस्ती का हाथ बढ़ाने पर
जनरल कमर जावेद बाजवा वैसे तो बात सही कह रहे हैं। पर वे जरा यह भी तो बताएं कि उन पर भरोसा कैसे किया जाए। उनके ही एक पूर्ववर्ती या कहें कि पाकिस्तान सेना के पूर्व सेनाध्यक्ष परवेज मुशर्रफ ने तब करगिल में पाकिस्तानी फौजों को भेजा था, जब दोनों मुल्क राजनीतिक स्तर पर बेहतर संबंध बनाने की तरफ बढ़ रहे थे। श्री अटल बिहारी वाजपेयी बस लेकर दिल्ली से लाहौर गए थे, दोस्ती का पैगाम लेकर। भारत अब भी पाकिस्तान के खिलाड़ियों, शायरों, कलाकारों के यहां आने के रास्ते में अवरोध खड़े नहीं करता। भारत को भी वहां के आम अवाम से रत्तीभर भी कोई परेशानी नहीं है। भारत ने हाल ही में पाकिस्तान की घुड़सवारी टीम को वीजा दिया। पाकिस्तान की टीम ने ग्रेटर नोएडा में इक्वेस्टियन विश्वकप क्वालिफायर प्रतियोगिता में भाग लिया, जहां भारत के अलावा पाकिस्तान, बेलारूस, अमेरिका व नेपाल की टीमें भी आईं थीं। पाकिस्तान टीम के कप्तान मुहम्मद सफदर अली सुल्तान ने भारतीयों की गर्मजोशी और मेहमान नवाजी का तहेदिल से धन्यवाद भी किया। भारतीय दर्शकों ने पाकिस्तानी खिलाड़ियों के बेहतरीन खेल को बहुत ही अच्छे ढंग से सराहा भी, यही है भारत की नीति और मिजाज।
कौन पड़ा बाजवा के पीछे
यह सच है कि पाकिस्तान में सेनाध्यक्ष राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री से भी कहीं अधिक शक्तिशाली होता है। पर कमर जावेद तो कुछ समय पहले खुद ही परेशान चल रहे थे। पाकिस्तानी मीडिया में जरनल बाजवा की धार्मिक पहचान को लेकर बहस छिड़ी हुई थी। बाजवा के मुसलमान होने को लेकर ही सवाल उठाए जा रहे थे। पाकिस्तान की पेशावर हाईकोर्ट में एक पूर्व मेजर ने याचिका दायर की थी, जिसमें बाजवा की नियुक्ति को इस आधार पर चुनौती दी गई कि वह कांदियानी समुदाय से आते हैं और मुसलमान नहीं हैं। कांदियानी समुदाय को पाकिस्तान में अहमदिया मुस्लिम के रूप में पहचाना जाता है। अहमदिया मुसलमानों को पाकिस्तान के मुख्य धारा के सुन्नी मुसलमान गैर-मुस्लिम मानते हैं। पाकिस्तान में कानून के तहत कोई भी गैर मुस्लिम शख्स आर्मी चीफ बन ही नहीं सकता है। कांदियानी मुसलमानों का मुख्यालय भारत के गुरुदासपुर में है। अब बाजवा जैसा सेना चीफ भारत से दोस्ती का आहवान कर रहा है हालांकि उसके अपने देश में कुछ कट्टरपंथी मुसलमान उनके हाथ धोकर पीछे पड़े हैं। बाजवा बीच-बीच में कश्मीर का मसला भी उठाते ही रहते हैं। यह भी सच है। पर वे पहली नजर में अपने पूर्ववर्ती राहील शरीफ की तरफ शायद भारत से नफरत नहीं करते। यह भी कह सकते हैं कि उनके मन में भारत को लेकर उस हद तक जहर नहीं भरा है जितना कि राहील शरीफ की जहन में भरा था । राहील शरीफ के पूर्वज खांटी राजपूत थे। वे अपने को बड़े फख्र के साथ राजपूत बताते भी थे । राहील शरीफ बार-बार कहते थे कि उनका देश भारत से दो-दो हाथ करने के लिए तैयार है। उनकी भारत से खुंदक की वजह शायद यह थी कि उनके अग्रज 1971 की जंग में मारे गए थे।
देखिए भारत में सरकार किसी की दल या गठबंधन की हो, भारत संकट के समय अपने पड़ोसियों या किसी अन्य देश को मदद पहुंचाने से पीछे नहीं हटता। इसका उदाहरण है कि भारत पाकिस्तान को कोरोना की साढ़े चार करोड़ वैक्सीन देने जा रहा है। भारत द्वारा पाकिस्तान को सीरम इंस्टीट्यूट की वैक्सीन कोविशील्ड दी जा रही है।
अपनी गिरेबान में झांके पाक
पाकिस्तान को अब अपनी गिरेबान में झांकना ही होगा कि वह क्यों भारत या भारत से जुड़े किसी भी प्रतीक से घृणा करता रहा है। अब पाकिस्तान में हिन्दी की हत्या को ही लें। संसार के मानचित्र में आने के बाद पाकिस्तान हिन्दी का नामो-निशान मिटा दिया गया। हिन्दी को हिन्दुओं की भाषा मान लिया गया। 1947 से पहले मौजूदा पाकिस्तान के पंजाब सूबे की राजधानी लाहौर के कॉलेजों में हिन्दी की स्नातकोत्तर स्तर तक की पढ़ाई की व्यवस्था थी। लाहौर में कई हिन्दी प्रकाशन सक्रिय थे। तब पंजाब में हिन्दी ने अपने लिए महत्वपूर्ण जगह बनाई हुई थी। हिन्दी पढ़ी-लिखी और बोली जा रही थी। पर 1947 के बाद हिन्दी की पढ़ाई और प्रकाशन बंद हो गए। तो यह है पाकिस्तान का चरित्र । पाकिस्तान ने भारत से नफरत करके उन लाखों मुसलमानों के ऊपर भी घोर नाइंसाफी की जिनके संबंधी सरहद के आर-पार रहते हैं। सबको पता है कि देश बंटा तो लाखों मुसलमान परिवार भी बंट गए। पर इनके बीच निकाह तो हो ही जाते थे। पर जब से पाकिस्तान ने अपने को घोर कठमुल्ला देश बना लिया और भारत से अनावश्यक पंगे लेने चालू कर दिए तो सरहद के आर-पार बसे परिवार हमेशा के लिए दूर हो गए।
निश्चित रूप से भारत-पाकिस्तान के बीच लगातार तल्ख होते रहे रिश्तों के चलते सरहद के आर-पार होने वाले निकाहों पर विराम सा लग गया। एक दौर में हर साल सैकड़ों निकाह होते थे, जब दूल्हा पाकिस्तानी होता था और दुल्हन हिन्दुस्तानी। इसी तरह से सैकड़ों शादियों में दुल्हन पाकिस्तानी होती थी और दूल्हा हिन्दुस्तानी। पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड के पूर्व चीफ शहरयार खान ने चंदेक साल पहले अपने साहबजादे अली के लिए भोपाल की कन्या को अपनी बहू बनाया था। उनके फैसले पर पाकिस्तान में बहुत हंगामा बरपा। पाकिस्तान में कट्टरपंथियों ने शहरयार साहब पर हल्ला बोलते हुए कहा, “शर्म की बात है कि शहरयार खान को अपनी बहू भारत में ही मिली। उन्हें पाकिस्तान में अपने बेटे के लिए कोई लड़की नहीं मिली।” जवाब में शहरयार खान ने कहा, “भोपाल मेरा शहर है। मैं वहां से बहू नहीं लाऊंगा तो कहां से लाऊंगा।” दरअसल उनका भोपाल से पुराना गहरा रिश्ता रहा है। उनकी अम्मी भोपाल से थीं। वे नवाब पटौदी के चचेरे भाई हैं। लेकिन, उनके परिवार ने देश के विभाजन के बाद पाकिस्तान का रुख कर लिया था।
अगर पाकिस्तान सच में चाहता है भारत से मैत्रीपूर्ण संबंध तो इस बार तो उसे पुख्ता प्रमाण देने होंगे।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं।)
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