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मुग़ल बादशाह अकबर ने बनवाया था ये चर्च, ऐसे हुई तामीर

आगरा डीवीएनए। मुख्तलिफ सर्वे से ये साबित हो चुका है कि आगरा तारीखी का शहर है। यहां के हर कोने पर बिखरी पड़ी तारीखी इमारते और बिल्डिंग शहर को शुमाली हिन्द की तहज़ीबी दारुल हुकूमत का दर्जा देते हैं।

आगरा का यह खुश किस्मती रही है, कि यहाँ हर मज़हब की बुनियादी निशानिया मौजूद है, मुगलो के वक़्त में आगरा से ही उत्तर भारत में ईसाई मज़हब की शुरुआत हुई और घटिया आजम खां में अकबरी चर्च को शुमाली हिन्द का पहला चर्च तामीर हुए । साथ ही आगरा को नगरी सुलहकुल का दर्जा भी।

अकबर की बनाई हुई इस चर्च को आज ‘दा चर्च ऑफ पीटा’ के नाम से जाना जाता है और जब इस चर्च पर खूबसूरत बिजली की रोशनी से झलमलाने लगती हैं तो समझ लो कि क्रिसमस का त्यौहार नजदीक आ गया, क्योंकि शहर में क्रिसमय मनाने की शुरुआत इसी चर्च से हुई थी। सन् 1573 में सूरत मे सबसे पहले अकबर पर पारसी मज़हब का असर हुआ था । ईसाई मज़हब को जानने के लिए अकबर ने ईसाई मज़हब को आगरा में शुरुआत की इजाज़त दी। अकबर ने ईसाई मज़हब को क़ुबूल तो नहीं किया पर हर मज़हब से ज़्यादा ईसाई मज़हब ने उस पर असर। इतना सब होने के बाद भी अकबर ईसाई न हो सका लेकिन उसके ज़रिए बनावायी गयी चर्च ने सुलहकुल को जरूर अमर कर दिया।

ऐसे हुई चर्च की तामीर आगरा में
ईसाई मज़हब को जानने की ललक अकबर में बहुत दिनों रही। उसने कई बार गोआ से ईसाइयों को बुलाकर अपनी मालूमात में इज़ाफ़ा किया था। लाहौर में रहते वक़्त अकबर की मुलाकात आर्मेनिया के रहने वाले ईसाई ताजिरो से हुई थी। अकबर इनकी इबादत के तरीके पर इतना असर हुआ कि उसने इन्हें आगरा आने की दावत दी । इस आने वाले लोगो में मिर्जा जुलकरन आगरा आने वाले पहले ईसाई थे। उन्हीं ने ही इस चर्च को बनाने के लिए अकबर को जमीन और रक़म देने के लिए राजी किया था। 1599 में अकबर ने आगरा में पहली ईसाई इमारत की तामीर की इजाज़त देने के बाद फादर जेरोम जेवियर जो कि लाहौर से अकबर के साथ ही आगरा आये थे। इनकी हिदायत में दुआ के लिए चर्च का तामीरी काम सन 1600 में शुरू हुआ था और चार साल में चर्च बनकर तैयार हो गयी। अकबरी चर्च में सन 1604 ई. पहली बार क्रिसमस त्यौहार मनाया गया था।

शाहंजहां ने चर्च को तोड़ा
शाहंजहां ने सन् 1616 में अपने दरबारियों के यह कहने पर कि यह लोग ईसाई मज़हब की पब्लिसिटीकर रहे हैं, चर्च को तुड़वाया। बाद में उसने खुद इसे दोबारा बनाने की इजाज़त दी। हालांकि शाहंजहां के वालिद सलीम ने चर्च को एक हजार सोने की मोहरें भेंट की। इसके बाद भी चर्च को कई बार गिराया और बनवाया गया। मौजूदा वक़्त में इमारत 1772 से आज भी खड़ी है।

कई ईसाई पादरियों की क़ब्र ये यहाँ मौजूद
चर्च के अंदर कई ईसाई दानीश्वरो की कब्रें है जो यहां रहकर इबादत करते थे और यही पर इनकी ज़िंदगी ख़त्म हुई। चर्च के पिछवाड़े में कई क़ब्र बनी हैं जिन पर लोगो का नाम तारीख़ समेत लिखा है इसमें सबसे पुरानी क़ब्र 1616 की है।
संवाद अज़हर उमरी

Digital Varta News Agency

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